Tuesday, January 8, 2013

क्या सारी कालिख एक बार में उतर सकती है?


कहीं पढ़ी हुई एक लाइन याद आती है भूख हड़ताल से शरीर को तो कष्ट होता है लेकिन आत्मा एकदम झकाझक ड्राइक्लीन हो जाती है. यह वाक्य विभिन्न धर्मों में मौजूद व्रत उपवासों के संदर्भ में कहीं गई थी. जिसमें सारे पाप या बुरे कर्मों को कोई उपरवाला केवल इसलिए माफ कर देता है, क्योंकि उसने एक दिन उसके नाम से भूखारह लिया. यानी कुछ भी करने के बाद केवल एक बार हल्का सा प्रयास करने मात्र से ही सारे आरोपों से बरी हो जाते हैं. इस व्यवस्था पर सोचने के बाद मन में सवाल उठने ही लगता है क्या इस तरह के फलसफे को अच्छा और सच्चा तरीका माना जाए. जो भी हो मन और उसके तर्क इस तरीके को मानने से बगावत कर देते हैं.


इन्ही तर्कों से ही पिछले कुछ दिन से जो तारीफ़ एक न्यूज़ चैनल और उसके इंटरव्यू वाले संपादक की हो रही है, उन सबकों सवालों के घेरे में खड़ा करने का मन होता है. चैनल के प्राइम टाइम स्लाट पर दिल्ली बलात्कार कांड की पीड़ित दामिनी के पुरुष मित्र और उस घटना के वक्त उसके साथ बस में सवार लड़के का पहला साक्षात्कार दिखाया जाता है. जाहिर सी बात है कि जिसे मुद्दे को लेकर दिल्ली और देश के (खास तौर पर हिंदी पट्टी) गांवों कस्बों में प्रदर्शन हो रहे हों, उस पर लोगों की निगाहें लगेंगी ही और हुआ भी वही. लड़के द्वारा उस घटना के विवरण जिसमें उस सड़क पर चल रहे लोगों और पुलिस द्वारा मदद ना करने की बातें मुख्य रूप से शामिल थीं. जो आलीशान ड्राइंगरूम से लेकर कस्बे की चौपाल तक में बैठे लोगों की भावनाओं को हिला दे रही थी. लेकिन इन बातों ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके बारे में आम लोग रोज़ सामना ना करते हों. किसी भी दुर्घटना या हादसे में ऐसी ही बातों का अनुभव हर किसी को कभी ना कभी होता ही है.
इस एक इंटरव्यू ने जहाँ सोशल मीडिया और वेब जर्नलिज्म में लहर फैला दी कि यह पत्रकारिता का एक महान कर्म है. जिसमें एक चैनल और उसके संपादक ने पुलिस और समाज को उघाड़कर रख दिया. आज के टीआरपी की खातिर जिस्म से लेकर रूह तक परोसने को बेचैन रहती इलेक्ट्रानिक मीडिया के दौर में भी चलिए अगर इस एक इंटरव्यू को बहुत अच्छा भी मान लिया जाए तो क्या इससे जुड़े लोगों के स्याह पक्ष देखे जाने बंद कर देने चाहिए या उससे नज़रें फेर लेनी चाहिए.


अभी बहुत ज्यादा महीने नहीं बीते होंगे जब इसी दिल्ली में जहाँ महिला अधिकारों और यौन हिंसा को लेकर आजकल तूफ़ान मचा हुआ है वहीँ उसी दिल्ली की एक महिला अध्यापिका को एक चैनल द्वारा स्टिंग करके शिक्षण कार्य की आड़ में देह व्यापार चलाने वाला बताया गया था. और चैनल के ही उकसावे में जैसे इस समय इंटरव्यू को देखकर लोग भावुक हुए जा रहे हैं ऐसे ही भावुक होकर उस महिला की बिना सच्चाई परखे बुरी तरह पिटाई और कपडे तक फाड़ देने वाली भींड जुट गई थी. बाद में जांच में पता चला कि यह सारा मामला झूठा था और उस चैनल के पत्रकार ने जानबूझकर फंसाने के लिए यह सारा ड्रामा रचा था. इलेक्ट्रानिक मीडिया में जहाँ हमेशा नेशनल का रोना रोया जाता है और जहाँ स्लाटकम होने का बहाना किया जाता है और जिसकी हर खबर पर संपादकीय जिम्मेदारी तय होती है. वहां के संपादक को कैसे इस पूरे कांड में बरी मान लिया जाए. इस चैनल के तत्कालीन संपादक वही रहे जो आज चर्चा में हैं. उक्त चैनल तो बंद हो गया लेकिन यह कई जगहों को पार करते हुए दूसरी जगह पहुँच गये.


अब उन्होंने एक इंटरव्यू लेकर अपने आप को महिला यौन उत्पीडन की लड़ाई से जोड़ लिया और कुछ बतकहियों को माने तो इन्होने हिम्मत वाली पत्रकारिता भी कर डाली है. यह भी एक अलग बात है कि जिस चैनल पर पत्रकारिता हुई उसी चैनल और इन संपादक का नाम एक बड़े नेता से वसूली करने के आरोप में फंसा हुआ है. इस मामलें में बकायदा वीडियो फुटेज बनी और पुलिस केस भी हो चुका है. इस मामलें को अगर एकबारगी के लिए अगर अपवाद भी मान लिया जाए तो दिल्ली में ही महिला शिक्षिका वाले मामले को तो महिला के साथ अपराध की श्रेणी में रखा ही जाना होगा. और इस मामले में असंवेदनशील व्यक्ति को कैसे पत्रकार और वह भी महिला उत्पीडन के मामलें में बहादुरी वाली पत्रकारिता करने का तमगा दिया जा सकता है.


आज की पत्रकारिता को अगर पैमाना मापकर तौला मापा जाए तो यह सारी कवायद टीआरपी और स्वयं रक्षा से ज्यादा नहीं दिखती है,. कई सारे आरोपों का सामना करने वाले चैनल व संपादक को यह मुद्दा टीआरपी और उनकी बदनामी के रक्षा कवच सरीखा लगा. जिसका पूरा उपयोग यह लोग करेंगे ही. शायद याद हो कि जब चैनल पर घूसकांड का मामला उछला था तब लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला वगैरह इनकी ओर से बताने की कोशिश की गई थी. जिसका कड़ा विरोध पत्रकारों की ओर से हुआ था. लेकिन अब इस एक इंटरव्यू के दौर में इन पर उठी एक ऊँगली भी बड़ी आसानी के साथ हमला सिद्ध की जा सकती है.

इस पूरे मामले को जिस तरह से चाहे देखने के लिए हर कोई स्वतंत्र है.लेकिन इससे एक सवाल तो उठता ही है कि क्या एक ही बार सारी कालिख उतर सकती है.

Wednesday, January 2, 2013

अब जिलों में मर गई है या रोज़ मारी जा रही है स्थानीय पत्रकारिता.



जिलों के स्तर पर होने वाली स्थानीय पत्रकारिता से सोच समझ और किसी भी विजन की उम्मीद तो कभी मिली ही नहीं. लेकिन पत्रकारिता के नाम पर जो तमाशे अक्सर देखने को मिलते हैं वह उसके बारे में मौजूद हर किताबी या पढ़ी लिखी बातों को झुठलाते नज़र आ रहे हैं. वायस आफ वायसलेस यानी जिनकी आवाज़ सत्ता प्रतिष्ठानों तक ना पहुँच रही हो उनकी आवाज़ बनना पत्रकारिता का मूल सिद्धांत माना जाता है. इसी सिद्धांत के बदौलत पत्रकारिता को वह मुकाम हासिल हुआ कि उसे लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में गिना या माना जाता है.

इसी लोकतंत्र की सबसे प्रथम इकाई के रूप में गाँव, क़स्बा और जिला आता है. जहाँ की आवाजें अक्सर अनसुनी रह जाती है जिनको मुकाम या जगह दिलवाना पत्रकारिता का कर्म होना चाहिए. लेकिन आज जिन हालातों में जिला पत्रकारिता कम से कम हिंदी पट्टी में चल रही उससे घिन के अलावा और कुछ कहा सोचा व समझा नहीं जा सकता. किसी धरने प्रदर्शन में या किसी भी पीड़ित की आवाज़ को सुनने के बजाय पत्रकारिता के नाम पर नाम भुनाने वाले वहां मौजूद पुलिस या प्रशासन के अधिकारियों से हाथ मिलाते या फिर उनके साथ चिपकते नज़र आते हैं. जिसे वह अपनी शान मानते हैं जो कुछ भी हो लेकिन पर पत्रकारिता तो नहीं ही कही जानी चाहिए.
31 दिसंबर की शाम को बहराइच जनपद के पानी टंकी चौराहे पर अचानक पुलिस की भींड पहुँच जाती है. जिसमें सीओ स्तर के अधिकारी भी मौजूद रहते हैं. और उसके बाद वहां उस चौराहे पर मौजूद ठेले वालों या वहां कुछ समान खरीद आम से दिखने वाले या सीधे शब्दों में कहूँ तो कमजोर दिखने वालों को पुलिस चेकिंग के नाम परेशान किया जाना शुरू होता है. इस प्रकार के अचानक हुए कार्यवाही के तमाशे को भोगकर आस पास और रोज उसी इलाके में खरीदारी करने वाले लोग या दुकानदार थोडा डर और आश्चर्य से चौंक पड़ते हैं. पुलिस की यह सारी कवायद 31 दिसंबर के नाम पर होने वाले शोर शाराबे और उद्दंडता को रोकने की ओर उठाया गया कदम बताया जाता है. लेकिन इस उद्दंडता को रोकने के नाम पर हुई कार्यवाही काफी समय तक लोगों को एक अजीब से आतंक में डालता दिखी.

खैर इसी बीच लगातार कैमरे के फ्लैश चमकते हुए जाने कहाँ कहाँ से तरह तरह के कैमरों के साथ कुछ लड़के पहुचंते हैं. और इस पुलिसिया कार्यवाही की फोटो लेने लगते हैं. पता चलता है कि यह पत्रकार हैं और पुलिस के इस घटनाक्रम को कवर करने आयें हैं. इससे फिलहाल तो एक संतोष जन्म लेता है कि चलिए यह पत्रकार आ पहुंचे है तो कम से कम पुलिस आम जनता को अपनी चेकिंग से परेशान नहीं करेगी. लेकिन परिस्थितियां एकदम अंदाज़े से उलट नज़र आती है. जब यह तथाकथित पत्रकार लोग सिपाही, दरोगा, कोतवाल व सीओ तक मौजूद हर अधिकारी से अपने अपने अखबार और संपर्क के नाम पर हाथ मिलाने में जुट जाते हैं. और बिना किसी पूर्व सूचना के ठेले या होटल मौजूद व्यक्तियों के जेबों में हाथ डालकर चेक कर रही पुलिस के इस कारनामे को उनकी सक्रियता के नाम पर महिमा मंडित करते हुए फोटो खींचकर अपनी पत्रकारिता पूरी करते रहे. इस तथाकथित पत्रकारिता झुण्ड में देश में नामचीन बताने वाले अखबारों से लेकर कल परसों तक बने अखबारों के प्रतिनिधि मौजूद होते है. जिनका मुख्य उद्देश्य केवल पुलिस की झुण्ड में अपनी पहचान बताना ही नज़र आता है.


इस तरह की पत्रकारिता देखकर मन यह कोफ़्त जरूर उठता है कि क्या ऐसे लोगों को पत्रकार माना जाए. और अगर माना न जाए तो आप कर क्या लेंगे, कुछ ऐसी ही स्थिति इस समय जिला स्तरीय स्थानीय पत्रकारिता की हो रही है. जिलों में काम करने के नाम पर जितने कम पैसे और संसाधन दिए जाते हैं और उसके बावजूद बढ़ रही असंख्य संख्या कम से शुचिता वाली पत्रकारिता की ओर तो नहीं ही ले जा सकती है. लेकिन यह जो कुछ भी पत्रकारिता के नाम पर हो रहा है उसे क्या कहा जाए. लोगों की आवाज़ बनने वाली पत्रकारिता उसी आवाज़ को दबाने वाले अधिकारी वर्ग की चापलूसी में जुटी हुई है.

अखबार लेखनी क्षमता नहीं एजेंसी विज्ञापन देखने लगे हैं. न्यूज़ चैनल कैमरा और मुफ्त में जितना ज्यादा मिल सके उतनी फुटेज को खोज रहे हैं. ऐसे में पत्रकारिता में समझ रखने वाले का स्थान कम से कम जिला स्तरीय पत्रकारिता में नहीं है. अपनी लगभग 2 साल और 15 जिलों की स्थानीय पत्रकारिता को समझकर और कहीं कहीं तो उनके बीच घुसकर रिसर्च करने के दौर में पाया कि अधिकाँश जगह तो अब पत्रकारिता साफ हो चुकी है. इक्का दुक्का जो लोग वाकई पत्रकारिता को मानते हैं उन्हें स्थानीय पत्रकारिता की यह बाढ़ एक बेकार की वस्तु से ज्यादा नहीं मानती है. और उनका मुकाम हाशिया पर बना दिया गया है. अब तो जिला स्तरीय पत्रकारिता में अखबार या चैनल की लग्गीयाँ एक औज़ार है जिनसे अधिकारियों और नेताओं में पकड़ बनाई जाए. मजे की बात तो यह देखने को मिलती है कि जिन जिला स्तरीय पत्रकारों के पास खुद लिखने पढ़ने की समझ नहीं है और जो इसका प्रयोग केवल हित साधने के लिए करते हैं. उनके पास लडको की कमी नहीं है जो पत्रकार बनने या यूँ कहिएं कि इसी हाथ मिलाने वाली पत्रकारिता के एक अंग बनने को व्याकुल हैं.

 
सरकारी अधिकारियों में अब वही पत्रकार है जो रोज सुबह शाम उनके यहाँ दरबार लगाता है, और जैसे पुराने जमाने में दरबारी फायदा उठाते वैसे ही फायदा उठाने और कानाफूसी करने का काम स्थानीय पत्रकारिता की आत्मा बन चुका है. इस तरह की स्थितियां दुःख तो देती है, लेकिन सच्चाई भी यही है. बहरहाल बहराइच के एक चौराहे पर लगे पत्रकारिता के मजमे को देखकर समझ नहीं आता है कि क्या कहा जाए. अब जिलों में मर गई है या रोज़ मारी जा रही है पत्रकारिता.

Wednesday, December 12, 2012

पत्रकारिता विहीन पत्रकार बनाने की परंपरा हमें कहाँ ले जायेगी.

कुछ कहने सुनने से पूर्व एक बिन मांगी सलाह उन सबको देना चाहूँगा जो “पत्रकारिता” करने के लिए पत्रकारिता में उतरना चाहते हैं. जो नहीं करना चाहते हैं वह केवल अपनी नौकरी या जो कुछ भी सोच समझकर पत्रकार बनने का शौक पाले हैं, वहीँ करें क्योंकि उनका ही बहुमत हो चुका है और रहने वाला भी है. खैर जो बात कहनी थी वह यह है कि दिल्ली नॉएडा जैसे देश के किसी भी जगह में अखबारों व चैनलों के न्यूज़ रूम में बैठकर ज्ञान झाड़ने से पहले एक बार अपने यानी इस देश में चल रहे मीडिया कारखाने का पूरा चक्कर जरूर लगाना चाहिए. मतलब यह है गाँव, क़स्बा और जिला स्तरीय पत्रकारिता के साथ रहकर और उसे कायदे एक बार समझने के बाद ही किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर बात करना ज्यादा अच्छा रहेगा. इससे सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अपनी असलियत और प्रभाव का अंदाजा लगता रहेगा.

खैर इन्ही सबके बीच एक पारिवारिक पडोसी के विवाह समारोह में अपने पत्रकारिता के जलवे के कारण बुलाये गये “शब्द शब्द संघर्ष” टैग लाइन के जिला संवाददाता अपने गुरु के साथ मिल जाते हैं. और वहां उनसे बात शुरू होती है. शब्द संघर्ष वाले जिला संवादाता महोदय ऐसी बातें करने लगते हैं जिससे उनके पत्रकारिता तो छोडिये सामान्य ज्ञान पर भी संदेह होने लगता है. जिला स्तर की पत्रकारिता को केवल अपने धंधों से सींचने वाले लोग पूरी मीडिया के पेशेवर व्यवहार के बारे में उल जलूल तर्क देने लगते है, जिस बारे में उन गुरु चेले को शायद ताउम्र ना पता चले. लेखनी में भी पैसा है और पैसा कैसे हैं कैसे किस जगह क्या लिखा जाना चाहिए यह सब बातें उन्हें जिले स्तर से आगे पता ही नहीं है. उन्हें केवल इतना पता है कि जो लखनऊ या दिल्ली में है वह तनख्वाह पाता है बाकी पत्रकार केवल “धंधो” में जुटा है. रिटेनरशिप और कांट्रेक्ट पर काम करने के बारे में इनके ख्याल पूछने पर इन्हें समझ ही नहीं आता है कि यह होता क्या है, यह अलग बात है कि वह जिले के “जिला संवाददाता” है और खुद लकदक सुविधासंपन्न स्टाफ से भरा पूरा दफ्तर चलाते हैं.

और समझ के इतने कमजोर कि उन्हें यह भी नहीं पता कि दिल्ली और लखनऊ में भी स्ट्रिंगर और उनके जैसे ऐसे वैसे एवइं टाइप लोग भी होते है. पत्रकारिता में चंद नाम उछालकर अपने को महान सिद्ध या यूँ कहने थोपने वाले इन लोगों को देख सुनकर कोफ़्त होती है लेकिन साथ ही तरस भी आता है कि क्या यही पत्रकारिता है जिसका आज समझ के साथ कोई रिश्ता नहीं रह गया है. गुरु चेले की इस जोड़ी जैसे स्थानीय पत्रकारिता के सैम्पल तहलका और इंडिया टुडे जैसी नामवर मैगजीनों के नाम ऐसे लेकर सामने वाले को सुनाते हैं कि गोया यह सब कोई अजूबा हैं. जिनमें कोई इनके पूछे बिना किसी की भर्ती नहीं हो सकती या इनके अलावा कोई लिख नहीं सकता. हाँ यह भी एक अलग बात है कि इन्ही लोगों ने शायद ऐसे जगहों के सिर्फ नाम भुनाए हो तो यह उनके लिए पूज्य होंगे  ही.

स्थानीय पत्रकारिता की समझ में स्थानीय पत्थर इतने ज्यादा भरे पड़े हैं जिससे इन्हें केवल यही समझ आता है कि दुनिया बस मेरे इस जिले में है जो मैं कर रहा हूँ वही है अन्यथा सब बेकार. इन लोगों को देखकर सुनकर कुएं के मेढक की कहानी की सत्यता आसानी से पता चल जाती है.

आज के दौर में जब पत्रकारिता और पत्रकार खास तौर पर पहली कड़ी वाले पूरी तरह से संदिग्ध होने के कगार पर खड़ी हैं. वहां “शब्द शब्द संघर्ष” को इस तरह बेमानी करने वाले लोगों और उनकी समझ को क्या कहा जायेगा. मजे की बात यह है कि यह लोग कहते हैं कि अब हम कितना पढ़ें यानी पत्रकार हैं और अखबार मैगज़ीन पढ़ना नहीं चाहते हैं. इस तरह आँख बंद करके अपनी ध्वस्त सोच अगर यह पत्रकारिता करते होंगे तो क्या लिखते होंगे यह सोचकर ही मन डरने लगता है. इसी तरह के कम्पायमान हो चुकी साख को इस तरह के शाब्दिक महारथी कितना धोते होंगे इसका अंदाजा मुश्किल नहीं है.

कुल मिलाकर आज पत्रकारिता का वह दौर है खास तौर पर हिंदी पट्टी में जहाँ संदिग्धता ही हावी है. इसीलिए चाहे न चाहे यह कहना और मानना पड़ता है कि अंग्रेजी पत्रकारिता अपने क्षेत्र और दायरे में काफी बेहतर है. संयोग से मिले इस जोड़ी इस चर्चा को याद करके मन यही कहता है कि यह पत्रकारिता विहीन पत्रकार बनाने की परंपरा हमें कहाँ ले जायेगी.

Thursday, December 6, 2012

जय एफडीआई "वाद"।

चलिए अच्छा हुआ नेताजी की पार्टी ने बता दिया कि वह साम्प्रदायिक ताकतों के साथ वोट नहीं देंगे. अब कुछ नासमझ लोग पूछने लगे कि देश में रोज़ी रोटी का सवाल और पूरी व्यवस्था में मिल रहा रोज़गार कैसे "साम्प्रदायिक" हो गया. खैर नेताजी के पास अपने चश्मे हैं. अचानक टाइम मशीन में जाने का मौका मिला तो दिखा कि 2003 में उत्तर प्रदेश की उस समय विधानसभा में वोटिंग किसी साम्प्रदायिक पार्टी के निर्वाचित जनप्रतिनिधि और अध्यक्ष करा रहे हैं. और उसमें सरकार गलत वोटिंग के बड़े आरोपों के बीच समाजवादी (शब्द के लिए माफ़ी) चोला ओढकर नेता जी का नेतृत्व हासिल कर रहे हैं. साथ ही गठन के बाद भी वही साम्प्रदायिक तरफ वाले स्पीकर महोदय काफी समय तक दायित्व निर्वाह करते रहे. मजा देखिये कि उस दौर में एक बार भी सरकार छोड़ने का विचार या विधानसभा भंग कराने का भी कोई ख्याल तक नहीं आया कि इसका गठन और संचालन साम्प्रदायिक पार्टी के सदस्य की अध्यक्षता में हुआ. चलिए छोडिये इस बात को और बात करते हैं कि कैसे बाबरी मस्जिद के लिए जी जान लगाने वाले नेताजी ने एक झटके में इसके "दोषी" "गुनाहगार" को एक झटके में "शुद्ध" करके अपने में विलय कर लिए (बाद में सियासी अपच के कारण उगलना पड़ा वह अलग बात है). अब इतनी शुद्ध सेक्युलर राजनीति करने वाले कैसे साम्प्रदायिक ताकतों के साथ वोटिंग करते यह तो समस्या थी ही. अरे लेकिन किसी को याद हो तो बता दूँ कि वाम पार्टियां भी इसी तरफ खड़ी थी शायद नेताजी ने उन्हें भी साम्प्रदायिक करार दे दिया हो (उनके एक सांसद कह भी रहे थे कि वाम के राज्य में मुसलमान नीचे गया है, यह अलग बात हैं कि उनके राज्य में 9 दंगे हो चुके हैं). अब एक बात तो पक्का हो गया की झकाझक शुद्ध वाला सेक्युलरवाद केवल नेताजी के ही पास है बाकी सब नक्काल. वैसे अमेरिकी न्युकिलियर डील के समय और अब एफडीआई के तरफ जिस तरह अमेरिका की तरफदारी की गई है उससे सेक्युलरिज्म को नए आयाम मिले हैं. अब कुछ लोग अमेरिका पर कई देशों में विवाद करवाने का दोषी मानते हों तो माने. कुछ भी हो नाक भी रहे और हजामत हो जाये ऐसी खूबसूरत राजनीति केवल "वादी" दाँव से ही आती है. ना यकीन हो तो न्युकिलियर डील, बाहर से समर्थन के बाद तत्काल बढ़ा पेट्रोल और गैस की राशनिग या अब एफडीआई की मंजूरी से लगा सकते हैं....शेष विशेष

Sunday, October 21, 2012

शौचालय निर्माण के जरिये अपहरण, बलात्कार और छेड़-छाड़ से मुक्ति के स्वप्न दिखाती नौकरशाही।


महिलाओं के साथ छेडछाड, बलात्कार और अपहरण जैसे हो रहे जघन्य अपराधों की रोकथाम बताने वाले उल जलूल बयान व फरमान अक्सर सुनाई देते रहते है। जिनमें परोक्ष रूप से महिलाओं को ही निशाना बनाकर इन अपराधों को रोकने के फरमान दिए जाते हैं। इसी कड़ी में इन अपराधों को नियंत्रित करने की नई और अजीब व्याख्या अब उत्तर प्रदेश की नौकरशाही से सुनने को मिल रही है। केन्द्र सरकार की निर्मल भारत योजना जिसके तहत गांवों में शौचालयों का निर्माण कराया जाना है। इसको लेकर अधिकारी कितने उत्साहित है उसका अंदाजा बहराइच की जिलाधिकारी की बातों से लगाया जा सकता है। जिलाधिकारी किंजल सिंह जो स्वयं एक महिला हैं वह इन महिला अपराधों को शौचालयों के निर्माण द्वारा रोके जाने की बात कहती है। बहराइच जनपद में शुक्रवार 12 अक्टूबर को निर्मल भारत योजना पर आयोजित अपनी एक प्रेस वार्ता में उन्होंने पत्रकारों को बताया कि गांवों में शौचालय के बन जाने के बाद से क़ानून व्यवस्था की स्थिति सुधरेगी और छेडछाड, बलात्कार, अपहरण जैसी घटनाए नियंत्रित हो जायेंगी। जिलाधिकारी किंजल सिंह शौचालयों की आवश्यकता को बताते हुए यह समझाना भूल गई कि अगर इन अपराधों को रोकने की दवा शौचालय बन जाना भर हैं तो यह अपराध उन इलाकों में क्यों होते हैं जहाँ शौचालय पहले से मौजूद हैं। शहरी इलाकों में तो महिलाओं को सबसे अधिक सुरक्षित होना चाहिए जहाँ घर में कम से एक नहीं तो अधिक भी शौचालय मौजूद रहते हैं।
केन्द्र सरकार की निर्मल भारत योजना के तहत गाँव गाँव में शौचालय निर्माण के लिए व्यवस्था दी गई है। जिसमें सरकार से निर्माण हेतु प्रोत्साहन राशि दस हज़ार रूपये है और इसके साथ ही ग्राम, ब्लाक और जिला स्तरीय अधिकारियों द्वारा इस पूरे कार्यक्रम को सफल बनाने की योजना बनाई जा रही है। इसमें ध्यान देने की बात यह है कि जिस योजना के तहत शौचालय बनाकर स्वच्छता से लेकर क़ानून व्यवस्था तक सुधारने के दावे हो रहे हैं। उस योजना को संचालित करने वाली वही नौकरशाही है जिसकी मनरेगा और तमाम ग्रामीण योजनाओं में भ्रष्टाचार की शिकायतों से जिले और राज्य स्तर में फाइलें भरी पड़ी हैं। ऐसे में क़ानून व्यवस्था और उसमें भी खास तौर पर महिला अपराधों को रोकने के सपने इन योजनाओं के जरिये कैसे देखे जा सकते हैं।
यही नहीं जिलाधिकारी द्वारा ग्रामीणों के बौद्धिक स्तर के विकास के लिए शौचालय को जरूरी बताया गया। इस सिद्धांत के अनुसार जिस भी घर में शौचालय हों वहां बौद्धिकता का प्रवाह होना चाहिए। इस थ्योरी के अनुसार शहरी इलाके और कस्बे बौद्धिकता के शिखर और ग्रामीण इलाके कूप मंडूक होने चाहिए। 15 अक्टूबर से जिले में हैंडवाश डे या जिला प्रशासन द्वारा अनुवादित हाथ धुलाई दिवस से चल रहे निर्मल भारत अभियान के तहत अधिकारी शहर के नजदीकी गाँव में एक खास ब्रांड के साबुन से हाथ धोने का पाठ पढ़ा रहे हैं। जो स्वच्छता से ज्यादा ब्रांडिंग का मामला लग रहा है। जिलाधिकारी के द्वारा निर्मल भारत अभियान को लेकर जो खास उत्साह दिख रहा है। वह एक एलिट नौकरशाही का सन्देश आम जन में पहुंचा रहा है। जहाँ दिल्ली केंद्रित सोच पिछड़े जिले में एकदम से लागू करने की बात बन रही है।
अखिलेश सरकार द्वारा प्रदेश में अनुभवहीन नए अधिकारियों की तेज़ी से उच्च पदों पर नियुक्ति की गई है। इन अधिकारियों का अभी जमीनी हकीकत से बहुत दूर होना ही ऐसे बयानों को जन्म देता है। यह नई नौकरशाही ग्रामीण जनता को सिर्फ इतना ही जानती है जितना उसने हिंदी अखबारों में पढ़ रखा है। जहाँ शौच के लिए गई युवती या महिला के साथ अपहरण और बलात्कार व छेड़छाड़ की खबरें मिल जाती हैं। इस प्रकार के अपराधों में पूरी ग्रामीण व्यवस्था की दबंगई और क्यों सिर्फ महिलाओं के ही साथ ही यह घटनाएं होती हैं। उसे समझने के स्थान पर शौचालय के ना होने को ही इन अपराधों का उत्तरदाई मानकर इसके निर्माण से ही इन अपराधों को रोकने की बात करना नौकरशाही की हवाई सोच दिखाती है। पर यह लोग इस पर सोचना भूल जाते हैं कि खुले में शौच तो पुरुष भी जाते हैं। लेकिन उस समय वहाँ हत्या और मार पिटाई जैसे अपराध क्या उनके साथ नहीं होते हैं। महिला अपराधों को रोकने की सोच से पहले इन अधिकारियों को अपराध के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है।
शौचालय निर्माण करके महिला अपराधों को नियंत्रित करने जैसे दिवास्वप्न देखने वाली नौकरशाही जिसका मात्र एक उदाहरण बहराइच की जिलाधिकारी का बयान है। जबकि ऐसे जमीन से दूर की सोच के अधिकारियों की संख्या प्रदेश में अधिक है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा तैनात की गई यह नई उच्च वर्गीय नौकरशाही जमीनी स्तर पर कितनी दूर है। इसका अंदाजा सरकार को लगाना पड़ेगा अन्यथा पिछली बसपा सरकार की तरह नौकरशाही के हवा हवाई कारनामों की तरह इस सरकार को फजीहत उठानी पड़ सकती है।

Saturday, June 23, 2012

बधाई दें या मातम करें इन नए नौकर “शाहों” की कुर्बानियों का.


हर वर्ष की तरह इस बार भी जब संघ लोक सेवा आयोग की नौकरियों यानी सिविल सेवा में चयनित हुए लोगों की सूची निकली तो प्रतिभागियों में तो खुशी का माहौल था ही, मीडिया भी काफी दिनों तक इन चयनित नौकरशाहों के बारे में एक से एक जानकारी सामने लाकर इन्हें आदर्श बनाया ही जाता रहा. सिविल सेवा में चुने गए इन लोगों में कोई डाक्टर थे तो कोई इंजिनियर, ऐसे लोग जिनके पास वह पढ़ाई करने का मौका था जो शायद इस देश के अधिकतर बच्चों का सपना होता है. फिर क्या कारण हो जाते हैं कि मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसी उपयोगी और व्यावसायिक शिक्षा के रास्ते को छोड़कर यह लोग सरकारी नौकरियों में चले आ रहे हैं.
इस प्रश्न पर एक धड़ा बहुत खुश होता है और कहता है कि देश की सरकारी सेवा में आकर इन उच्च शिक्षित लोगों के द्वारा नए आयाम बनाए जायेंगे. सिविल सेवा पर हर्षित गान करने वाले यह लोग तमाम तरह के उद्धरणों से इन नए नौकर शाहों का अभिनन्दन राष्ट्रनायकों की तरह करने लगते हैं. परन्तु बात की जाए देश की आवश्यकता की तो देश में एक सरकारी महिला अधिकारी की अपेक्षा सबसे अधिक आवश्यकता एक डाक्टर वह भी महिला डाक्टर की है. परन्तु इस वर्ष संघ लोक सेवा आयोग की टापर जो महिला भी हैं और डाक्टर भी उन्होंने अपना पेशा नहीं चुना आखिर क्या कारण थे. इन सारे गानों धूम के बीच कुछ ऐसी ही बातें सोचने पर मजबूर कर देती है कि यह नए लोग वही होंगे जो हर वर्ष ऐसे ही हर्ष गान के बीच ही चुने जाते हैं और उसके बाद देश की सर्वोच्च नौकरशाही के पदों पर बैठने के बाद जनता के उतने ही बड़े शोषक हो जाते हैं जैसे कभी औपनिवेशिक दौर में अंग्रेज अधिकारी होते थे. अगर इन बातों पर हज़ारों उद्धरणों के बीच कुछ पर ध्यान दें तो चाहें उत्तर प्रदेश करोडो रूपये के एनआरएचएम घोटाले में पकडे गए अपने लोक सेवा बैच के टापर आईएएस प्रदीप शुक्ल हो यां छत्तीसगढ़ में एक आदिवासी महिला सोनी सोरी के साथ अमानुषिक व्यवहार करने वाले आईपीएस अंकित गर्ग हों. यह सब इन्ही संघ लोक सेवा आयोग की नौकरियों से निकले भूरे अंग्रेज हैं. तो फिर नौकरशाही में सफलता को लेकर इतना उत्साह क्यों मनाया जाए.
अगर जनता के मांस की बात करें तो इस देश में नौकरशाही के इस वर्ग में शामिल होने को लेकर बहुत अधिक उत्साह हमेशा से रहा है. भारतीयों में अंग्रेज ज़माने के अधिकारियों के प्रति काफी भय और सर्व शक्तिशाली होने की जो छवि बनी उसी के साये में भारत की स्वतंत्रता के बाद की नौकरशाही चली और चलती ही गई. मनोवैज्ञानिकों का एक सिद्धांत इस पर ठीक बैठता है कि मनुष्य जिस भी संस्था या व्यक्ति द्वारा शोषित होता है या डर महसूस करता है वह उसी संस्था या व्यक्ति के रूप को पाना चाहता है. नौकरशाही को लेकर पीढ़ियों से ऐसी ही मानसिकता विरासत में मिलती चली आ रही है. आज भी देश के हर कोने में तमाम लोग मिल जायेंगे जो आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को राजा या बादशाह की उपाधि आसानी से दे देंगे और इस दबदबे में शामिल होना चाहेंगे.
तमाम तरह की उपमाओं से दूर अगर इन अधिकारी बनने को लालायित वर्ग के बारे में ही देखा जाए तो साफ़ पता चलेगा कि किसी भी जिले में तैनात एक डाक्टर जो व्यावसायिक शिक्षा के सबसे अच्छी जरूरत को पूरा करता है जिसकी मनुष्य को सबसे अधिक जरूरत है, वह जिले के कलेक्टर के सामने हाथ बांधे खड़ा होता है. कलेक्टर सर्वोच्च हो जाता है और डाक्टर जो मानवों को जीवन देता है या दे सकता है वह उसका अधीनस्थ. यही हाल इंजीनियरिंग में दक्ष लोगों का भी है, तो ऐसे में इन सभी का झुकाव इस नौकरी के प्रति होना वैसे भी स्वाभाविक है.
इसी के साथ भारतीय समाज में परिवार का सामाजिक स्तर उठाने की ग्रंथि में भी इस सेवा का अहम योगदान हो जाता है. किसी परिवार का लड़का या लड़की अगर इन सेवाओं में चुन लिया जाता है तो उसके पास चापलूसों मुसाहिबों की भींड लग जाती है साथ ही सिफारिशी खत और रिश्तेदारों में नयी नौकरशाही का ऐसा जन्मोत्सव मनाया जाता है जैसे प्राचीन काल में किसी देश को जीतने पर मिला करता था.
ऐसे माहौल में बधाइयों के तमाम प्रवचनों के कुछ वर्ष के बाद यह अधिकारी वर्ग वैसा ही होता है जैसे इन सेवा के पूर्वज अंग्रेज रहे थे. गरीब से गरीब परिवार से आने वाला आईएएस कभी यह सवाल नहीं उठाता है कि क्यों पूरे सेवा काल में उसका एक सेवक उसके राशन कार्ड में जगह पाने का हक़दार हो जाता है, कभी कोई आईपीएस सवाल नहीं उठाता है कि उसके लिए इतने फालोवर नौकर किसलिए रखे जाते हैं. भारतीय संविधान का विधान इन नौकरशाहों के दरवाजों पर क्यों दम तोड़ देता है जहाँ इनके लिए समता का अधिकार रखने वाला दूसरा भारतीय जनता की सरकार के टैक्स के पैसे से मिलने वाली तनख्वाह को पाने के लिए इनकी गुलामी करता है. क्या इन नए अधिकारीयों को मिलने वाली सरकारी गाडियां मेमसाहबों को खरीददारी कराने और बच्चों को स्कूल छोड़ने जाना बंद कर देंगी, क्या इन अधिकारीयों के दफ्तरों में यह कुर्सी पर और जनता सामने जमीन पर फ़रियाद करती दिखना बंद कर देंगी. अगर यह सब नहीं हुआ और ना ही होगा तो फिर क्यों बधाई दें इन नए नौकरशाहों का क्यों ना मातम करें इनकी इन कुर्बानियों का.

Thursday, February 23, 2012

आखिर क्यों प्रयोग करूँ अपने मत? अगर हमारा अधिकार तो हमें ही सोचकर प्रयोग करने दीजिए?


उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान नेताओं के भाषणों और अपने अपने वादों तथा उनके समीकरणों से ज्यादा शोर अगर किसी बात का था तो वह शोर मतदान करने के लिए होने वाली जागरूकता का ही था. तमाम होर्डिंग्स, बैनर पोस्टर, टीवी चैनलों तथा जिलों-जिलों, कस्बों-कस्बों में मतदान जागरूकता रैलियां और अभियान चलाये गए. सरकारी गैर सरकारी तथा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के हर समूहों द्वारा इस मतदान में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जा रहा था. लगातार चल रहे इन कार्यक्रमों के द्वारा ऐसा महसूस कराया जा रहा था जैसे अगर आपने मतदान नहीं किया तो कोई बहुत बड़ा पाप कर देंगे या अपना अधिकार खो देंगे. मतदान कराने के लिए इतनी सक्रियता का दिखाई देना एक तरफ तो अच्छा लगता है. परन्तु दूसरी तरफ यह बिलकुल ऐसा लगता है जैसे हम बाजार में खड़े हैं और कम्पनी अपने उत्पाद को बेचने के लिए अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रही है. आखिर क्या हो गया जो चुनाव आयोग जिसका काम निष्पक्ष चुनाव करना है वह और पक्षपात से भरी सारी पार्टियां एकदम से मतदान कराने के लिए कमर कसकर तैयार हो गईं. सारे दलों के एक साथ एक सुर से चुनाव आयोग के साथ मिलकर खड़े होने की स्थिति बिलकुल वैसे ही लगती है कि जब बाजार में ग्राहक आये ही ना और दुकाने खुली हुई हों इसीलिए उस समय संतुलन के लिए सारे व्यवसाई एक जुट होकर ग्राहक को बाजार में लाने के लिए हर सुविधा देने को तैयार हों, और ग्राहक के लिए सारी सुविधा दे रहे हों.

इन सारे अभियानों के साथ ऐसा भी नहीं है कि चुनाव आयोग ने सारी तैयारी पूरी कर रखी हो और देश के हर कोने में सबको मतदाता पहचान कार्ड मिल गए हों और सही मिल गए हों. दूसरों की बात क्या कहें अभी तक हमें खुद अपना मतदाता पहचान पत्र नहीं मिला है जबकि कई बार कोशिश कर चुका हूँ, कुछ ना कुछ गलतियाँ मिल ही जाती हैं. इसी तरह लाखो लोग ऐसे हैं जो या वोटर लिस्ट में मरे दर्शाये गए हैं जबकि उनकी आत्मा सदेह पोलिंग बूथ पर टहलती मिली, इसी प्रकार का एक उदाहरण चर्चित हुआ जब वाराणसी के कैंट विधानसभा के प्रत्याशी अफलातून के प्रस्तावक जब वोट डालने गए तो वह ही वोटर लिस्ट में मृत मिले जबकि वह सदेह पोलिंग एजेंट थे. ऐसी तमाम गडबडियों को किनारे करते हुए बस हर तरफ बस एक ही शोर कि आपने मतदान किया आपने वोट दिया. इस तरह की जल्दबाजी यह सोचने पर मजबूर करती है ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों इतना प्रचार किया जा रहा है?

चुनावों में जो भी दल मैदान में उतरे हैं उनमे चाहें सपा हो बसपा हो भाजपा या कांग्रेस हो हर दल ने कभी ना कभी सरकार बनाई है या सरकार में शामिल रहा है, और साथ ही हमेशा से कई चुनाव क्षेत्रों से उनके लोग सांसद या विधायक रहे हैं. इसी के साथ राजनीति के जड़ में घुस चुका भ्रष्टाचार, गुंडई, काला धन जैसे मुद्दों का कीड़ा सबमे वही छेद छोटे या बड़े आकार में कर चुका है. यहाँ आकार से मतलब उनकी संख्या के अनुसार आकार से है. अब जब राजनीति के परिदृश्य में यही कलाकार हैं जो सब के सब अंदर से खोखले है और मजे की बात यह है की जनता में चुनाव लड़ने सम्बन्धी कोई जागरूकता नहीं है. यानी किसी भी ऐसे प्रत्याशी को चुनाव लड़ने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है जिसको ईमानदार या शरीफ कहा जाए. ऐसे में केवल मतदाता को जागरूक करने से क्या हो जायेगा? जागरूकता के नारे में साफ़ कहा जाता है कि आप अपने मत का प्रयोग कीजिये नहीं तो गलत आदमी चुन लिया जाएगा. अब इस सारे कार्यक्रमों में यह नहीं बताया जाता है कि जब सब गलत है तो फिर वोट करने का क्या मकसद रह जाएगा और क्यों मजबूरी है कि गलत लोगों में से कम गलत को चुना जाए. वोटर जागरूकता अभियान से कभी कभी मन में यह ख्याल आता है कि अगर कभी चुनना पड़े तो भांग, धतूरे, सिगरेट, तम्बाकू, शराब, ड्रग्स में से कौन सा नशा अच्छा नशा है इसका चुनाव कैसे करूँगा.

खैर हम तो मानते हैं कि यह सब जागरूकता अभियान क्यों हुए इसके कारण तलाशने के लिए ज्यादा परेशान होने कि जरूरत नहीं है, क्योंकि कारण आसानी के साथ ही दिख जाता है. देखा जाए तो इस बार के चुनावों में कांग्रेस मजबूत होकर अपने लिए मतदाता तलाश रही तो सपा कांग्रेस के बढ़ने से बने कारण से अपने परम्परागत वोट बैंक घटने पर परेशान है. वहीँ बीजेपी के मुख्य वोट बैंक माने जाने वाले सवर्ण मतदाता का बहुत कम संख्या में घर से निकलना और खास तौर पर सवर्ण महिला मतदाताओं को घर से न निकलना बड़ी चिंता का विषय है, जबकि सवर्ण मतदाता के पास कांग्रेस का विकल्प हो. मायावती जो सबसे सुरक्षित होकर अपने कैडर के वोट बैंक के सहारे हमेशा आगे बढती है उन्हें भी अन्य जातियों का सहयोग तो चाहिए ही होगा. अब अगर ऐसी ही परिस्थितियाँ सामने हो तो उस समय सारे दल जो राजनीति के दलदल में सरकार का पुल बनाकर उस पार जाना चाहते हैं उन्हें दलदल भरने के लिए वोट चाहिए और चूँकि सबके दलदल का आकार एक ही बराबर हैं तो जाहिर सी बात है की मतदाताओं या गड्ढे में गिरने वालों की संख्या तो चाहिए ही होगी. अब इसी संख्या की तलाश में हर पार्टी नए मतदाताओं को बढ़ाना चाह रही तो इसी अंदरखाने में मची राजनैतिक एकजुटता के लिए ही तमाम मतदाता जागरूकता अभियान चल रहे हैं और लोगों को वोट डालने के बारे में बताया जा रहा है. जैसा की प्रचलित में इन अभियानों में वोट ना डालने को बड़े गुनाह के रूप में दर्शाने की छुपी कोशिश हो रही है.

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परन्तु विचारों के अनुसार ही माने तो अगर कोई भी व्यक्ति वोट नहीं डालता है तो यह लोकतंत्र के प्रति कैसे गलत हो जाएगा. जिस राजनैतिक व्यस्वथा सोच की जगह सत्ता हावी है. ऐसी व्यवस्था जहाँ प्रत्याशी घोषित करने से पहले कोई भी पार्टी जो बड़ी जनहितैषी बनती है वह कभी किसी जनता से नहीं पूछती है कि बताओ इसे तुम्हारा प्रतिनिधि बना रहे हैं, यह बनने लायक है भी या नहीं. यानी कोई प्रत्याशी तय करने का तरीका नहीं है. बस चार लोगों को थोप दिया गया और चुनने के लिए जबरदस्ती धकेला जाने लगा. तो भाई इसी पर हमारा यह सवाल है. आखिर क्यों प्रयोग करूँ अपने मत? अगर हमारा अधिकार तो हमें ही सोचकर प्रयोग करने दीजिए? सोचिये हो सकता है यही सवाल सबके मन में भी कहीं ना खिन तो उठ ही रहा होगा.