मौन का स्वर
यह वह स्वर हैं जिनको बोलने की छूट हर जगह नहीं होती. यह स्वर अक्सर या तो सुने ही नहीं जाते या कोई सुनने ही नहीं देता है. हमसे यहाँ इस मेल पर संपर्क किया जा सकता है. harishankar.shahi@gmail.com
Tuesday, January 8, 2013
क्या सारी कालिख एक बार में उतर सकती है?
Wednesday, January 2, 2013
अब जिलों में मर गई है या रोज़ मारी जा रही है स्थानीय पत्रकारिता.
Wednesday, December 12, 2012
पत्रकारिता विहीन पत्रकार बनाने की परंपरा हमें कहाँ ले जायेगी.
खैर इन्ही सबके बीच एक पारिवारिक पडोसी के विवाह समारोह में अपने पत्रकारिता के जलवे के कारण बुलाये गये “शब्द शब्द संघर्ष” टैग लाइन के जिला संवाददाता अपने गुरु के साथ मिल जाते हैं. और वहां उनसे बात शुरू होती है. शब्द संघर्ष वाले जिला संवादाता महोदय ऐसी बातें करने लगते हैं जिससे उनके पत्रकारिता तो छोडिये सामान्य ज्ञान पर भी संदेह होने लगता है. जिला स्तर की पत्रकारिता को केवल अपने धंधों से सींचने वाले लोग पूरी मीडिया के पेशेवर व्यवहार के बारे में उल जलूल तर्क देने लगते है, जिस बारे में उन गुरु चेले को शायद ताउम्र ना पता चले. लेखनी में भी पैसा है और पैसा कैसे हैं कैसे किस जगह क्या लिखा जाना चाहिए यह सब बातें उन्हें जिले स्तर से आगे पता ही नहीं है. उन्हें केवल इतना पता है कि जो लखनऊ या दिल्ली में है वह तनख्वाह पाता है बाकी पत्रकार केवल “धंधो” में जुटा है. रिटेनरशिप और कांट्रेक्ट पर काम करने के बारे में इनके ख्याल पूछने पर इन्हें समझ ही नहीं आता है कि यह होता क्या है, यह अलग बात है कि वह जिले के “जिला संवाददाता” है और खुद लकदक सुविधासंपन्न स्टाफ से भरा पूरा दफ्तर चलाते हैं.
और समझ के इतने कमजोर कि उन्हें यह भी नहीं पता कि दिल्ली और लखनऊ में भी स्ट्रिंगर और उनके जैसे ऐसे वैसे एवइं टाइप लोग भी होते है. पत्रकारिता में चंद नाम उछालकर अपने को महान सिद्ध या यूँ कहने थोपने वाले इन लोगों को देख सुनकर कोफ़्त होती है लेकिन साथ ही तरस भी आता है कि क्या यही पत्रकारिता है जिसका आज समझ के साथ कोई रिश्ता नहीं रह गया है. गुरु चेले की इस जोड़ी जैसे स्थानीय पत्रकारिता के सैम्पल तहलका और इंडिया टुडे जैसी नामवर मैगजीनों के नाम ऐसे लेकर सामने वाले को सुनाते हैं कि गोया यह सब कोई अजूबा हैं. जिनमें कोई इनके पूछे बिना किसी की भर्ती नहीं हो सकती या इनके अलावा कोई लिख नहीं सकता. हाँ यह भी एक अलग बात है कि इन्ही लोगों ने शायद ऐसे जगहों के सिर्फ नाम भुनाए हो तो यह उनके लिए पूज्य होंगे ही.
स्थानीय पत्रकारिता की समझ में स्थानीय पत्थर इतने ज्यादा भरे पड़े हैं जिससे इन्हें केवल यही समझ आता है कि दुनिया बस मेरे इस जिले में है जो मैं कर रहा हूँ वही है अन्यथा सब बेकार. इन लोगों को देखकर सुनकर कुएं के मेढक की कहानी की सत्यता आसानी से पता चल जाती है.
आज के दौर में जब पत्रकारिता और पत्रकार खास तौर पर पहली कड़ी वाले पूरी तरह से संदिग्ध होने के कगार पर खड़ी हैं. वहां “शब्द शब्द संघर्ष” को इस तरह बेमानी करने वाले लोगों और उनकी समझ को क्या कहा जायेगा. मजे की बात यह है कि यह लोग कहते हैं कि अब हम कितना पढ़ें यानी पत्रकार हैं और अखबार मैगज़ीन पढ़ना नहीं चाहते हैं. इस तरह आँख बंद करके अपनी ध्वस्त सोच अगर यह पत्रकारिता करते होंगे तो क्या लिखते होंगे यह सोचकर ही मन डरने लगता है. इसी तरह के कम्पायमान हो चुकी साख को इस तरह के शाब्दिक महारथी कितना धोते होंगे इसका अंदाजा मुश्किल नहीं है.
कुल मिलाकर आज पत्रकारिता का वह दौर है खास तौर पर हिंदी पट्टी में जहाँ संदिग्धता ही हावी है. इसीलिए चाहे न चाहे यह कहना और मानना पड़ता है कि अंग्रेजी पत्रकारिता अपने क्षेत्र और दायरे में काफी बेहतर है. संयोग से मिले इस जोड़ी इस चर्चा को याद करके मन यही कहता है कि यह पत्रकारिता विहीन पत्रकार बनाने की परंपरा हमें कहाँ ले जायेगी.
Thursday, December 6, 2012
जय एफडीआई "वाद"।
Sunday, October 21, 2012
शौचालय निर्माण के जरिये अपहरण, बलात्कार और छेड़-छाड़ से मुक्ति के स्वप्न दिखाती नौकरशाही।
Saturday, June 23, 2012
बधाई दें या मातम करें इन नए नौकर “शाहों” की कुर्बानियों का.
Thursday, February 23, 2012
आखिर क्यों प्रयोग करूँ अपने मत? अगर हमारा अधिकार तो हमें ही सोचकर प्रयोग करने दीजिए?
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान नेताओं के भाषणों और अपने अपने वादों तथा उनके समीकरणों से ज्यादा शोर अगर किसी बात का था तो वह शोर मतदान करने के लिए होने वाली जागरूकता का ही था. तमाम होर्डिंग्स, बैनर पोस्टर, टीवी चैनलों तथा जिलों-जिलों, कस्बों-कस्बों में मतदान जागरूकता रैलियां और अभियान चलाये गए. सरकारी गैर सरकारी तथा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के हर समूहों द्वारा इस मतदान में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जा रहा था. लगातार चल रहे इन कार्यक्रमों के द्वारा ऐसा महसूस कराया जा रहा था जैसे अगर आपने मतदान नहीं किया तो कोई बहुत बड़ा पाप कर देंगे या अपना अधिकार खो देंगे. मतदान कराने के लिए इतनी सक्रियता का दिखाई देना एक तरफ तो अच्छा लगता है. परन्तु दूसरी तरफ यह बिलकुल ऐसा लगता है जैसे हम बाजार में खड़े हैं और कम्पनी अपने उत्पाद को बेचने के लिए अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रही है. आखिर क्या हो गया जो चुनाव आयोग जिसका काम निष्पक्ष चुनाव करना है वह और पक्षपात से भरी सारी पार्टियां एकदम से मतदान कराने के लिए कमर कसकर तैयार हो गईं. सारे दलों के एक साथ एक सुर से चुनाव आयोग के साथ मिलकर खड़े होने की स्थिति बिलकुल वैसे ही लगती है कि जब बाजार में ग्राहक आये ही ना और दुकाने खुली हुई हों इसीलिए उस समय संतुलन के लिए सारे व्यवसाई एक जुट होकर ग्राहक को बाजार में लाने के लिए हर सुविधा देने को तैयार हों, और ग्राहक के लिए सारी सुविधा दे रहे हों.
इन सारे अभियानों के साथ ऐसा भी नहीं है कि चुनाव आयोग ने सारी तैयारी पूरी कर रखी हो और देश के हर कोने में सबको मतदाता पहचान कार्ड मिल गए हों और सही मिल गए हों. दूसरों की बात क्या कहें अभी तक हमें खुद अपना मतदाता पहचान पत्र नहीं मिला है जबकि कई बार कोशिश कर चुका हूँ, कुछ ना कुछ गलतियाँ मिल ही जाती हैं. इसी तरह लाखो लोग ऐसे हैं जो या वोटर लिस्ट में मरे दर्शाये गए हैं जबकि उनकी आत्मा सदेह पोलिंग बूथ पर टहलती मिली, इसी प्रकार का एक उदाहरण चर्चित हुआ जब वाराणसी के कैंट विधानसभा के प्रत्याशी अफलातून के प्रस्तावक जब वोट डालने गए तो वह ही वोटर लिस्ट में मृत मिले जबकि वह सदेह पोलिंग एजेंट थे. ऐसी तमाम गडबडियों को किनारे करते हुए बस हर तरफ बस एक ही शोर कि आपने मतदान किया आपने वोट दिया. इस तरह की जल्दबाजी यह सोचने पर मजबूर करती है ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों इतना प्रचार किया जा रहा है?
चुनावों में जो भी दल मैदान में उतरे हैं उनमे चाहें सपा हो बसपा हो भाजपा या कांग्रेस हो हर दल ने कभी ना कभी सरकार बनाई है या सरकार में शामिल रहा है, और साथ ही हमेशा से कई चुनाव क्षेत्रों से उनके लोग सांसद या विधायक रहे हैं. इसी के साथ राजनीति के जड़ में घुस चुका भ्रष्टाचार, गुंडई, काला धन जैसे मुद्दों का कीड़ा सबमे वही छेद छोटे या बड़े आकार में कर चुका है. यहाँ आकार से मतलब उनकी संख्या के अनुसार आकार से है. अब जब राजनीति के परिदृश्य में यही कलाकार हैं जो सब के सब अंदर से खोखले है और मजे की बात यह है की जनता में चुनाव लड़ने सम्बन्धी कोई जागरूकता नहीं है. यानी किसी भी ऐसे प्रत्याशी को चुनाव लड़ने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है जिसको ईमानदार या शरीफ कहा जाए. ऐसे में केवल मतदाता को जागरूक करने से क्या हो जायेगा? जागरूकता के नारे में साफ़ कहा जाता है कि आप अपने मत का प्रयोग कीजिये नहीं तो गलत आदमी चुन लिया जाएगा. अब इस सारे कार्यक्रमों में यह नहीं बताया जाता है कि जब सब गलत है तो फिर वोट करने का क्या मकसद रह जाएगा और क्यों मजबूरी है कि गलत लोगों में से कम गलत को चुना जाए. वोटर जागरूकता अभियान से कभी कभी मन में यह ख्याल आता है कि अगर कभी चुनना पड़े तो भांग, धतूरे, सिगरेट, तम्बाकू, शराब, ड्रग्स में से कौन सा नशा “अच्छा नशा है” इसका चुनाव कैसे करूँगा.
खैर हम तो मानते हैं कि यह सब जागरूकता अभियान क्यों हुए इसके कारण तलाशने के लिए ज्यादा परेशान होने कि जरूरत नहीं है, क्योंकि कारण आसानी के साथ ही दिख जाता है. देखा जाए तो इस बार के चुनावों में कांग्रेस मजबूत होकर अपने लिए मतदाता तलाश रही तो सपा कांग्रेस के बढ़ने से बने कारण से अपने परम्परागत वोट बैंक घटने पर परेशान है. वहीँ बीजेपी के मुख्य वोट बैंक माने जाने वाले सवर्ण मतदाता का बहुत कम संख्या में घर से निकलना और खास तौर पर सवर्ण महिला मतदाताओं को घर से न निकलना बड़ी चिंता का विषय है, जबकि सवर्ण मतदाता के पास कांग्रेस का विकल्प हो. मायावती जो सबसे सुरक्षित होकर अपने कैडर के वोट बैंक के सहारे हमेशा आगे बढती है उन्हें भी अन्य जातियों का सहयोग तो चाहिए ही होगा. अब अगर ऐसी ही परिस्थितियाँ सामने हो तो उस समय सारे दल जो राजनीति के दलदल में सरकार का पुल बनाकर उस पार जाना चाहते हैं उन्हें दलदल भरने के लिए वोट चाहिए और चूँकि सबके दलदल का आकार एक ही बराबर हैं तो जाहिर सी बात है की मतदाताओं या गड्ढे में गिरने वालों की संख्या तो चाहिए ही होगी. अब इसी संख्या की तलाश में हर पार्टी नए मतदाताओं को बढ़ाना चाह रही तो इसी अंदरखाने में मची राजनैतिक एकजुटता के लिए ही तमाम मतदाता जागरूकता अभियान चल रहे हैं और लोगों को वोट डालने के बारे में बताया जा रहा है. जैसा की प्रचलित में इन अभियानों में वोट ना डालने को बड़े गुनाह के रूप में दर्शाने की छुपी कोशिश हो रही है.
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परन्तु विचारों के अनुसार ही माने तो अगर कोई भी व्यक्ति वोट नहीं डालता है तो यह लोकतंत्र के प्रति कैसे गलत हो जाएगा. जिस राजनैतिक व्यस्वथा सोच की जगह सत्ता हावी है. ऐसी व्यवस्था जहाँ प्रत्याशी घोषित करने से पहले कोई भी पार्टी जो बड़ी जनहितैषी बनती है वह कभी किसी जनता से नहीं पूछती है कि बताओ इसे तुम्हारा प्रतिनिधि बना रहे हैं, यह बनने लायक है भी या नहीं. यानी कोई प्रत्याशी तय करने का तरीका नहीं है. बस चार लोगों को थोप दिया गया और चुनने के लिए जबरदस्ती धकेला जाने लगा. तो भाई इसी पर हमारा यह सवाल है. आखिर क्यों प्रयोग करूँ अपने मत? अगर हमारा अधिकार तो हमें ही सोचकर प्रयोग करने दीजिए? सोचिये हो सकता है यही सवाल सबके मन में भी कहीं ना खिन तो उठ ही रहा होगा.